उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वर: |
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुष: पर: || 23||
उपद्रष्टा-साक्षी; अनुमन्ता–अनुमति देने वाला; च-भी; भर्ता-निर्वाहक; भोक्ता–परम भोक्ता; महा-ईश्वर:-परम नियंन्ता; परम्-आत्म-परमात्मा; इति-भी; च-तथा; अपि-निस्सन्देह; उक्तः-कहा गया है; देहे-शरीर में; अस्मिन्-इस; पुरुषःपर-परम प्रभु।
BG 13.23: इस शरीर में परमेश्वर भी रहता है। उसे साक्षी, अनुमति प्रदान करने वाला, सहायक, परम भोक्ता, परम नियन्ता और परमात्मा कहा जाता है।
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अब तक श्रीकृष्ण द्वारा शरीर के भीतर जीवात्मा की स्थिति का वर्णन किया गया है। अब इस श्लोक में वे परमात्मा की स्थिति का वर्णन करते हैं, जो शरीर के भीतर भी निवास करता है। उन्होंने श्लोक संख्या 13.2 में भी इसी प्रकार से परमात्मा शब्द का उल्लेख किया था जब उन्होंने बताया था कि जीवात्मा केवल अपने शरीर की ज्ञाता है जबकि परमात्मा अनन्त शरीरों के ज्ञाता हैं। सभी प्राणियों में स्थित परमात्मा भगवान विष्णु के साकार रूप में भी प्रकट होते हैं। विष्णु के परमात्मा संसार के पोषण के लिए उत्तरदायी हैं। भगवान विष्णु क्षीर सागर में साकार रूप में रहते हैं। वह अपना विस्तार कर सभी प्राणियों के हृदय में परमात्मा के रूप में वास करते हैं। सभी के हृदय में बैठकर वे सबके कर्मों को देखते हैं और उनके कर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं तथा उचित समय पर उनका फल प्रदान करते हैं। वे प्रत्येक जन्म में जीवात्मा को चाहे जो भी शरीर मिले, सदैव उसके साथ रहते हैं। वे सर्प, सुअर या कीड़े मकोडों के शरीर में रहने में कोई संकोच नहीं करते। मुंडकोपनिषद् में वर्णन है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।।
समाने वृक्षे पुरूषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमीशमस्य महिमानमिति वीतशोकः
(मुंडकोपनिषद्-3.1.1-2)
"शरीर रूपी वृक्ष के घोंसले में दो पक्षी रहते हैं। वे आत्मा और परमात्मा हैं। जीवात्मा परमात्मा की ओर पीठ किए हुए है और वृक्ष के फलों को भोगने में मग्न हैं। जब मीठे फल आते हैं तो यह सुख का अनुभव करती है और जब फल कड़वे आते हैं तो तब दुःखी हो जाती है। परमात्मा जीवात्मा का मित्र अवश्य है लेकिन वह हस्तक्षेप नहीं करता वह केवल बैठकर देखता रहता है। यदि जीवात्मा परमात्मा सम्मुख हो जाती है तब उसके सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं।" जीवात्मा भगवान के सम्मुख होने या विमुख रहने के लिए स्वतंत्र है। इस स्वतंत्रता के अनुचित प्रयोग से जीवात्मा बंधन में फंस जाती है जबकि इसका सदुपयोग सीखकर यह भगवान की नित्य सेवा प्राप्त कर सकती है और असीम आनन्द पा सकती है।